मानवता का मूल्य आज कुछ नहीं रह गया,
पानी जैसा खून गली-कूचों में बह गया।
जहाँ बिलखती मानवता परित्राण चाहती,
दानवता बस वहीं उसी के प्राण चाहती।
मानवता का शत्रु आज मानव ही बन गया।
मानवता का मूल्य ......(1)
कोई रहता खुले गगन के नीचे हरदम,
सहता वर्षा धूप और जाड़ा भी भरदम।
कोई रहता वहीं बनाकर महल वृहत वर,
भरता हरदम स्वर्ण, रत्न से अपना लॉकर।
सारा पैसा स्वीस बैंक में हजम हो गया,
मानवता का मूल्य ......(2)
कहीं लूटते भूखे बच्चे जूठी रोटी,
कहीं लुढ़कती मक्खन घी की भरी कटोरी।
भूखा सोता कोई बस कुछ चने चबाकर,
कोई सोता वहीं पलंग पर नोट बिछाकर।
होटल बनते पाँच सितारे महानगर में,
महल अटारी भी बनते हैं बीच शहर में।
उसी शहर में कुछ रहते झुग्गी के अंदर,
हालत उनकी आज हुई पशु से भी बदतर।
इस असाम्य से साम्यवाद का किला ढह गया,
मानवता का मूल्य ......(3)
पत्थर को पूजता है मानव, नहीं अघाता,
यथाशक्ति दे दान चढ़ावा खूब चढ़ाता।
ईश अंश(मनुष्य) दरवाजे पर रोता-चिल्लाता,
मगर किसी से कभी-कभी थोड़ा पा जाता।
संवेदी सद्भाव दिलों से कब का बह गया,
मानवता का मूल्य ......(4)
आदर्शों की बात सदा ग्रन्थों में रही है,
“मुख में राम बगल में छूरी” बात सही है।
मूर्त दंभ है सदाचार और शील सिखाता,
मूढ़, पिशुन, आकंठ-भ्रष्ट शायद शरमाता।
अपनी फूटी आँख छिपा काने को कोसे,
स्व-निर्भर की बात करें, रह राम भरोसे।
प्रायौगिक सिद्धान्त छद्म आचरण बन गया,
मानवता का मूल्य ......(5)
छल प्रपंच और राग द्वेष की बढ़ती हाला,
चारा, यूरिया, चीनी और ताबूत घोटाला।
जनता परवश, विवश, सत्य का है मुंह काला।
दुर्दमनीय अराजकता का कहर बढ़ गया,
मानवता का मूल्य ......(6)